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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


उन्माद (कहानी) : मुंशी प्रेमचंद


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मनोमालिन्य बढ़ता गया। आखिर मनहर ने उसके साथ दावतों और जलसों पर जाना छोड़ दिया; पर जेनी पूर्ववत सैर करने जाती, मित्रों से मिलती, दावते करती, और दावतों में शरीक होती। मनहर के साथ न जाने से उसे लेश्मात्र भी दुःख या निराशा नहीं होती थी; बल्कि वह शायद उसकी उदासीनता पर और प्रसन्न होती थी। मनहर इस मानसिक व्यथा को शराब के नशे में डुबोने का उध्योग करता। पीना तो उसने इंग्लैण्ड में ही शुरु कर दिया था, पर अब उसकी मात्रा बहुत बढ़ गयी थी। वहां स्फ़ूर्ति और आनन्द के लिये पीता था, यहां स्फ़ूर्ति और आनन्द को मिटाने के लिये। वह दिन-दिन दुर्बल होता जाता था। वह जानता था कि शराब मुझे पिये जा रही है, पर उसके जीवन कयही एक अवलम्ब रह गया था।
गर्मियों के दिन थे। मनहर एक मुआमले की जांच करने के लिये लखनऊ मॆं डेरा डाले हुये था। मुआमला बहुत संगीन था। उसे सेर उठाने की फ़ुरसत न मिलती थी। स्वास्थ्य भी बहुत खराब हो चला था, पर जेनी अपने सैर-सपाटे मॆम मग्न थी। आखिर उसने एक दिन कहा; मैं नैनीताल जा रही हूं। यहां की गर्मी मुझसे सही नहीं जाती।
मनहर ने लाल-लाल आंखे निकालकर कहा-नैनीताल में क्या काम है?
वह आज अपना अधिकार दिखाने पर तुल गया। जेनी भी उसके अधिकार की उपेक्षा करने पर तुली हुई थी। बोली- यहां कोई सोसायटी नही। सारा लखनऊ पहाड़ों पर चला गया है।
मनह्र ने जैसे म्यान से तलवार निकाल कर कहा-जब तक मैं य्हां हूं, तुम्हें कही जाने का अधिकार नहीं है। तुम्हारी शादी मेरे साथ हुयी है, सोसायटी के साथ नहीं। फ़िर तुम साफ़ देख रही हो मैं बीमार हूं, तिस पर भी तुम अपनी विलास प्रवत्ति को रोक नहीं सकतीं। मुझे तुमसे ऐसी आशा नहीं थी,जेनी! मैं तुमको शरीफ़ समझता था। मुझे स्वप्न मॆं भी गुमान न था कि तुम मेरे साथ ऐसी बेवफ़ाई करोगी।
जेनी ने अविचलित भाव से कहा-तो क्या तुम समझते थे, मैं भी तुम्हारी हिन्दुस्तानी स्त्री की तरह तुम्हारी लौण्डी बनकर रहूंगी और तुम्हारे तलवे सहलाऊंगी? मैं तुम्हे इतना नदान नहीं समझती। अगर तुम्हे हमारी अंग्रेज सभ्यता की इतनी सी बात नही मालूम, तो अब मालूम कर लो कि अंग्रेज स्त्री अपनी रुचि के सिवा और किसी की पाबन्द नहीं। तुमने मुझसे विवाह इसलिये किया था कि मेरी सहायता से तुम्हे सम्मान और पद प्राप्त हो। सभी पुरुष ऐसा करते हैं और तुमने भी वैसा ही किया। मैं इसके लिये तुम्हे बुरा नहीं कहती लिकिन जब तुम्हारा वह उद्देश्य पूरा हो गया, जिसके लिये तुमने मुझसे विवाह किया था, तो तुम मुझसे अधिक आशा कुओं रखते हो? तुम हिन्दुस्तानी हो अंग्रेज नहीं हो सकते। मैं अंग्रेज हूं हिन्दुस्तानी नहीं हो सकती; एसलिये हममें में से किसी को अधिकार नहीं है कि वह दूसरों को अपनी मर्जीका गुलाम बनाने की चेष्टा करे।
मनहर हतबुद्वि सा बैठा सुनता रहा। एक एक शब्द विष की घूंट की भांति उसके कंठ के नीचे उतर रहा था। कितना कठोर सत्य था! पद लालसा के इस प्रचण्ड आवेग में, विलास तृष्णा के उस अदम्य प्रवाह में वह भूल गया था कि जीवन में कोई ऐसा तत्व भी है, जिसके सामने पद और विलास कांच के खिलौनो से अधिक मूल्य नहीं रखते। वह विस्मृत सत्य इस समय अपने दारुण विलाप से उसकी मद्मग्न चेतना को तड़पाने लगा।
शाम को जेनी नैनीताल चली गयी। मनहर ने उसकी ओर आंखे उठा कर भी नहीं देखा।

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